आचार्य श्रीराम शर्मा >> सतयुग की वापसी सतयुग की वापसीश्रीराम शर्मा आचार्य
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उज्जवल भविष्य की संरचना....
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बस एक ही विकल्प-भाव-संवेदना
काँच को हथौड़े से तोड़ा जाए तो वह छर-छर होकर बिखर तो सकता है, पर सही जगह से इच्छित स्तर के टुकड़ों में विभाजित न हो सकेगा। चट्टानों में छेद करना हो, तो सिर्फ हीरे की नोंक वाला बरमा ही काम आता है। पहाड़ में सुरंगें निकालने के लिए डायनामाइट की जरूरत पड़ती है। कुदालों से खोदते-तोड़ते रहने पर तो सफलता संदिग्ध ही बनी रहेगी।
वर्तमान में संव्याप्त असंख्यों अवाछनीयताओ से जूझने में प्रचलित उपाय पर्याप्त नहीं हैं। दरिद्रता को सभी संकटों की एकमात्र जड़ बताने से तो बात नहीं बनती। समाधान तो तब हो, जब सर्वसाधारण को मनचाही संपदाओं से सराबोर कर देने का कोई सीधा मार्ग बन सके। यह तो संभव नहीं दीखता। इसी प्रकार यह भी दुष्कर प्रतीत होता है कि उच्च शिक्षित चतुर कहलाने वाला व्यक्ति अपनी विशिष्टताओं का दुरुपयोग न करेगा और उपार्जित योग्यता का लाभ सर्वसाधारण तक पहुँचा सकेगा। प्रपंचों से भरी कठिनाइयाँ खड़ी न करेगा। संपदा के द्वारा मिलने वाली सुविधाओं से कोई इनकार नहीं कर सकता, पर यह विश्वास कर सकना कठिन है कि जो पाया गया, उसका सदुपयोग ही बन पड़ेगा। उसके कारण दुर्व्यसनों का, आतंकवादी अनाचार का जमघट तो नहीं लग जाएगा।
वर्तमान कठिनाइयों के निराकरण हेतु आमतौर से संपदा, सत्ता और प्रतिभा के सहारे ही निराकरण की आशा की जाती है। इन्हीं तीनों का मुँह जोहा जाता है। इतने पर भी इनके द्वारा जो पिल्ले दिनों बन पड़ा है, उसका लेखाजोखा लेने पर निराशा ही हाथ लगती है। प्रतीत होता है कि जब भी, जहाँ भी वे अतिरिक्त मात्रा में संचित होती हैं, वहीं एक प्रकार का उन्माद उत्पन्न कर देती हैं। उस अधपगलाई मनोदशा के लोग सुविधा संवर्धन के नाम पर उद्धत् आचरण करने पर उतारू हो जाते हैं और मनमानी करने लगते हैं। अपने अपनों के लाभ के लिए उनकी उपलब्धियाँ खपती रहती हैं। प्रदर्शन के रूप में ही यदाकदा उनका उपयोग ऐसे कार्यों में लग पाता है, जिससे सतवृत्ति संवर्धन में कदाचित् कुछ योगदान मिल सके। वैभव भी अन्य नशों की तरह कम विक्षिप्तता उत्पन्न नहीं करता, उसकी खुमारी में अधिकाधिक उसका संचय और अपव्यय के उद्धत् आचरण ही बन पड़ते हैं। ऐसी दशा में निश्चय पर पहुँचना अति कठिन हौ जाता है कि उपर्युक्त त्रिविध समर्थताएँ यदि बढ़ाने- जुटाने को लक्ष्य मानकर चला जाए तो प्रस्तुत विपन्नताओं से छुटकारा मिल सकेगा।
सच तो यह है कि समर्थता का जखीरा हाथ लगने पर तथाकथित बलिष्ठों ने ही घटाटोप की तरह छाए हुए संकट और विग्रह खड़े किए हैं। प्रदूषण उगलने वाले कारखाने संपन्न लोगों ने ही लगाए हैं। उन्हीं ने बेरोजगारी और बेकारी का अनुपात बढ़ाया है। आतंक, आक्रमण और अनाचार में संलग्न बलिष्ठ लोग ही होते हैं। युद्धोन्माद उत्पन्न करना खरचीले माध्यमों के सहारे उन्हीं के द्वारा बन पड़ता है। प्रतिभा के धनी कहे जाने वाले वैज्ञानिकों ने ही मृत्यु किरणों जैसे आविष्कार किए हैं। कामुकता को धरती से आसमान तक उछाल देने में तथाकथित कलाकारों की ही संरचनाएँ काम करती हैं। अनास्थाओ को जन्म देने का श्रेय बुद्धिवादी कहे जाने वालों के ही पल्ले बँधा है। नशेबाजी को घर-घर तक पहुँचाने में चतुरता के धनी लोग ही अपने स्वेच्छाचार का परिचय दे रहे हैं। इस प्रकार आंकलन करने पर प्रतीत होता है कि मूर्द्धन्यों, बलिष्ठों, संपन्न और प्रतिभाशालियों की छोटी-सी चौकड़ी ने अनर्थ थोड़े, समय में खड़े किए हैं।
यहाँ साधन संपन्नता की निंदा नहीं की जा रही है और न दुर्बलता के सिर पर शालीनता का सेहरा बाँधा जा रहा है। कहा इतना भर जा रहा है कि पिछड़ेपन को हटाने-मिटाने का एकमात्र यही उपाय नही है।
इस तथ्य को हजार बार समझा और लाख बार समझाया जाना चाहिए कि मनःस्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदात्री है। इसलिए यदि परिस्थितियों की विपन्नता को सचमुच ही सुधारना हो, तो जनसमुदाय की मनःस्थिति में दूरदर्शी विवेकशीलता को उगाया, उभारा और गहराई तक समाविष्ट किया जाए। यहाँ यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि मनःक्षेत्र एवं बुद्धि संस्थान भी स्वतंत्र नहीं हैं, उन्हें भावनाओं, आकांक्षाओं, मान्यताओं के आधार पर अपनी दिशाधारा विनिर्मित करनी होती है। उनका आदर्शवादी उत्कृष्ट स्वरूप अंतःकरण में भाव-संवेदना बनकर रहता है। यही है वह सूत्र, जिसके परिष्कृत होने पर कोई व्यक्ति ऋषिकल्प, देवमानव बन सकता है। यह एक ही तत्त्व इतना समर्थ है कि अन्यान्य असमर्थताएँ बने रहने पर भी मात्र अकेली विभूति के सहारे न केवल अपना वरन् समूचे संसार की शालीनता का पक्षधर कायाकल्प किया जा सकता है। इक्कीसवीं सदी के साथ जुड़े उज्ज्वल भविष्य का यदि कोई सुनिश्चित आधार है तो वह एक ही है कि जन-जन की भाव-संवेदनाओं को उत्कृष्ट, आदर्श एवं उदात्त बनाया जाए। इस सदाशयता की अभिवृद्धि इस स्तर तक होनी चाहिए कि सब अपने और अपने को सबका मानने की आस्था उभरती और परिपक्व होती रहे।
संपदा संसार में इस अनुपात में ही विनिर्मित हुई है कि उसे मिल-बाँटकर खाने की नीति अपनाकर सभी औसत नागरिक स्तर का जीवन जी सकें। साथ ही बढ़े हुए पुरुषार्थ के आधार पर जो कुछ अतिरिक्त अर्जन कर सकें, उसे पिछड़े हुओं को बढ़ाने, गिरते हुओं को उठाने एवं समुन्नतों को सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन हेतु प्रोत्साहित कर सकें।
अनावश्यक संपन्नता की ललक ही बेकाबू होने पर उन अनर्थकारी संरचनाओं में प्रवृत्त होती है, जिनके कारण अनेकानेक रंग रूप वाले अनाचारों को व्यापक, विस्तृत और प्रचंड होते हुए देखा जा रहा है। लिप्साओं में किसी प्रकार कटौती करते बन पड़े, तो ही वह जुझारूपन उभर सकता है, जो अवांछनीयताओं से गुँथे और पटकनी देकर परास्त कर सके। जिन अभावों से लोग सत्रस्त दीखते हैं, उनसे निपटने की प्रतिभा उनमें उभारी जाए ताकि वे अपने पैरों खड़े होकर, दौड़कर स्पर्द्धा जीतते देखे जा सकें।
आर्थिक अनुदान देने की मनाही नहीं है और न यह कहा जा रहा है कि गिरों को उठाने में सहयोग देने में कोताही बरती जानी चाहिए। मात्र इतना भर सुझाया जा रहा है कि मनुष्य अपने आप में समग्र और समर्थ है। यदि उसका आत्मविश्वास एवं पुरुषार्थ जगाया जा सके, तो इतना कुछ बन सकता है जिसके रहते याचना का तो प्रश्न ही नहीं उठता, इतना बचा रहता है, जिसे अभावों और अव्यवस्थाओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त मात्रा में लगाया जा सके।
इक्कीसवीं सदी भाव-संवेदनाओं के उभरने-उभारने की अवधि है। हमें इस उपेक्षित क्षेत्र को ही हरा-भरा बनाने में निष्ठावान माली की भूमिका निभानी चाहिए। यह विश्व उद्यान इसी आधार पर हरा-भरा, फला-फूला एवं सुषमा संपन्न बन सकेगा। आश्चर्य नहीं कि वह स्वर्ग लोक वाले नंदन वन की समता कर सके।
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- लेने के देने क्यों पड़ रहे हैं?
- विभीषिकाओं के पीछे झाँकती यथार्थता
- महान् प्रयोजन के श्रेयाधिकारी बनें
- संवेदना का सरोवर सूखने न दें
- समस्याओं की गहराई में उतरें
- समग्र समाधान : मनुष्य पर देवत्व के अवतरण से
- बस एक ही विकल्प-भाव-संवेदना
- दानव का नहीं, देव का बरण करें